Sunday, April 15, 2007

मेरा बज़ार


बचपन मे याद आता है कि बजार का हमारे अंदर एक ज़बरदस्त क्रेज़ था . वहा काफ़ी सारी चीज़ें मिलती थी , रंगीन और चटपटी भी , क़रारी क़रारी और मख़्कन सी मुलायम भी . कही पे बाँस क़ी बीन और वो भी गुब्बारे वाली तो कही पे दफ़्ती का लाल वाला चश्मा जिस पर शीशे कि जगह लाल पन्नी लगी रहती है मूंगफली , टिक्कियाँ , फुलकियाँ , पकोडी और सबसे बच कर सर्र्र से निकलती साइकिल . लेकिन ये समय सर्र्र से ऐसे निकला क़ी बहुतो को बचने का मौक़ा ही नही मिला.अब हाल ये है कि सारा ज़हाँ तो बजार है और अंकल सैम कि माने तो पूरी दुनिया ही एक गाँव है ज़हाँ सब कुछ तो मिलता है , डेमोक्रेसी भी मिलती है और लाल झंडा भी फहराया जाता है यहाँ पर , हिंदुस्तानी फ़िल्मों मे जितने भी सीन होते हैं , यहा बड़े आराम से देखने को मिल जाते हैं बस फ़र्क यही होता है कि वहाँ कोई अमिताभ बच्चन होता है और यहाँ कोई अवधेश बैरागी . लेकिन ग़ज़ब के हैं हम लोग , हममें से अकसर उन्हे पहचान तक नही पाते हैं और अगर भूले भटके पहचान भी गये तो उन्हे जानबूझकर अनदेखा कर देता हैं इस टाइम भी बॉलीवुड मे काम हो रहा होगा . वहा का बाज़ार चल रहा होगा , लेकिन गाँव कि बजार तो अब भी 7-8 बजे तक बंद हो जाती है . ये डूसरी बात है कि वहा अभी भी बजार के बनीए के यहाँ, जो मोटा सा होगा और जिसका लड़का अभी भी स्कूल के बहाने दोस्तो के साथ विदीओ हाल मे बैठ कर सिनेमा देखता होगा, टी वी देखा जा रहा होगा और वो भी डिश पर . अपनी बजरिया बदली और बहुत बदली , लोगो कि आदते भी बदली , काफ़ी लोग ऐसे हैं जो पहले वी सी आर मँगा कर टी वी से फ़िल्मो का लुत्फ़ उठाते थे और अब केबल पर पूरा मज़ा लेते हैं . मोबाइल पर बतीयाते हैं और मामा की माने तो भाई साहेब तो मुह पे उ काजनी काव फ़ेस वाश लग़ावत रहे .----------------------------------------------------------------------------
इस फ़ोटो के साथ एक लिंक है हिंदी मे टाइप करने का..रोमन मे ही हिंदी टाइप किया जा सकता है फ़र्क यही है की ये एक वेबसाइट है

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