Sunday, April 15, 2007

अब मैं मरती हूँ ...

हमारे दफ़्तरों मे क्या क्या होता रहता है क्या क्या नही होता है ... हम सब इसकी कल्पना तो कर सकते हैं , इसके परिणामो के बारे मे बहस तो कर सकते हैं लेकिन शायद आज तक किसी ने इसके लिए कुछ किया होगा , मुझे इसकी आशा नही .. बाज़ार मे हमारे दफ़्तर भी आते हैं , वो भी कुछ बेचते हैं , कुछ ख़रीदते हैं , लेकिन आख़िर इन दफ़्तरों का असली रंग क्या है .. कुछ कुछ इस स्टोरी से साफ़ हो जाता है ..
प्रियंका (काल्पनिक नाम) ... मेरे दफ़्तर मे काम करने वाली एक लड़की . मैं अपना दफ़्तर छोड़ चुका हू लेकिन जो बात मुझे बार बार कॉन्फ़्यूज कर रही है कि मैं इसका परिचय किस काल मे दूं . दफ़्तर छोड़ चुका हूँ इसलिए सोचता हू की इसका परिचय भूत काल मे देना चाहिए . प्रियंका अभी ज़िंदा है , इसलिए सोचता हूँ कि वर्तमान काल मे इस से सबका परिचय होना चाहिये और अभी भी इसकी ज़िंदगी का कोई भरोसा नही इसलिए सोचता हू कि ये ताना बाना भविष्य मे ही बूना जाना चाहिये. बहर हाल चीज़ें अपने इतिहास पर ही टिकी होती हैं इसलिए बात उनके इतिहास से ही शुरू कि जाएँ तो अच्छा रहता है और उन्हे क्रम से समझने मे भी आसानी होती है . मैं नोयडा पिछले साल आया और नौकरी भी पिछले साल ही शुरू की . पहली नौकरी थी और कुछ कर गुज़रने की जोश भी . सो मैं जी जान से काम मे लग गया . मैं दफ़्तर के संपादन विभाग मे था और अक्सर मुझे काम के सिलसिले मे बॉस के केबिन तक जाना पड़ता था . बॉस के केबिन तक पहूचने के लिए मुझे रिसेपस्न और मार्केटिंग विभाग पार करके जाना होता था जो की छोटे और कबूतर के डर्बे की तरह बीच मे बने हुए थे . रास्ते से गुज़रते वक़्त गाहे - बगाहे सब पर नज़र पड़ ही जाती थी जिनमे प्रियंका भी शामिल थी .लेकिन तब उस से मेरी कोई बात-चीत नही होती थी. कारण यही था की मैं नया था और अभी दफ़्तर के लोगों से उतना घुल-मिल नही पाया था. एक दिन बॉस का हुक़म हुआ कि मैं प्रियंका को साथ लूँ और ग्रेटर नोयडा के एक अस्पताल का मुयायना कर आइए . उस अस्पताल पैर मुझे एक इँपेक्ट फ़ीचर करना था . हम दोनो ड्राइवर के साथ कार से तक़रीबन 20-25 किलोमीटर का फ़ासला तय करके उस अस्पताल तक पहुचे . रास्ते मे हुमरे बीच कोई बात-चीत नही हुई . इसका कारण शायद यह था कि मैं काफ़ी झिझक रहा था और वैसे भी वो वहा मार्केटिंग के काम से जा रही थी तो उससे मेरा उतना मतलब भी नही था . रास्ते भर मैं और ड्राइवर आपस मे बतीयाते रहे और ये लड़की कार कि पिछली सीट पैर खोए खोए अंदाज़ मे बैठी रही . बहर हाल हमारी बातचीत आधा काम निपटाने के बाद तब शुरू हुई जब हम दोनो डॉक्टर के केबिन के बाहर बैठे थे . लेकिन तब भी सिर्फ़ इतना ही कि इससे पहले कहा काम करते थे और क्या काम करते थे ?

2 comments:

Anonymous said...

lage raho munna bhayi

उन्मुक्त said...

लगता है कि यह पोस्ट justify कर के लिखी है। इसी लिये फैल रही है। पोस्ट right align करके ही लिखें।
आपका हिन्दी चिट्ठे जगत मैं स्वागत है।