Friday, August 28, 2009

तनी देखो, मर तो नही गवा ?

कुछ दिन पहले फैजाबाद के पास के जंगल मे एक तेंदुआ आया। कुछ जानवरों को तो कुछ बच्चो को खा भी गया। बड़ा हल्ला मचा। यहाँ वहाँ, न जाने कहाँ कहाँ से शिकारी आए, कई दिन तक जंगल की ख़ाक छानते रहे, लेकिन तेंदुआ भी कम नही। शिकारी एक कदम आगे बढायें तो तेंदुआ चार फर्लांग दूर जाकर मुह चिढाये। राम राम करते हुए आखिरकार शिकारियों ने तेंदुए को मार गिराया। जब तेंदुए के मरने की ख़बर फैजाबाद पहुची तो वह से कई लोग उसे देखने के लिए गए। तेंदुए के आस पास देखने वाले लोग बार बार उसे टहोक रहे थे। जैसे कि पता लगाने की कोशिश कर रहे हों कि मर तो गया है या नही? जिन्दा हुआ तो अभी और लोगों को मारेगा। आजकल बी जे पी कि भी हालत खौराये तेंदुए से कुछ ज्यादा अच्छी नही दिखाई दे रही है। यहाँ वहां न जाने कहा कहा से लोग बी जे पी को देखने आ रहे हैं। वही उसके हाथ से बने शिकारों की भी कोई कमी नही है। वैसे बी जे पी के पास शिकारों के शायद ही कभी कोई कमी रही हो। जिस विचारधारा की ये पार्टी है, आजादी के आन्दोलन मे हमेशा लोगों से उल्टे चले, उसके बाद फैजाबाद मे मस्जिद तोड़कर एक बार फ़िर से साबित कर दिया कि उन्हें इस देश के लोगों से कुछ लेना देना नही है। और फ़िर गुजरात मे जो किया, वो तो खैर तेंदुए को भी शर्माने पर मजबूर कर देता है। बी जे पी और उसके समर्थकों ने गुजरात मे मौत का जो तांडव किया, लोगों को मारा, उनकी बददुआयें कभी तो नजर आनी थी। बददुआओं ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। बी जे पी का विनाश सुनिश्चित हो चुका है। मदनलाल खुराना हों या उमा भरती। जसवंत सिंह हों या अरुण शौरी। एक के बाद एक नेता अब बी जे पी की खिलाफत मे उतरने लगे हैं। मजे की बात तो ये कि सबसे बड़ा शिकारी भी दिल्ली मे ये देखने के लिए पहुच गया कि मर तो नही गई बी जे पी? और अंत मे उन्हें कहना ही पड़ा कि भाई , खून का रिसाव तो हो रहा है....उसे बंद करने की जरूरत है। लेकिन एक बात तो तय है, बी जे पी अब दोबारा कभी भी सत्ता मे नही आने वाली। अगले लोक सभा चुनाव मे वह प्रमुख विपक्षी दल भी बनकर रह जाए तो भी गनीमत ही समझिये।

Monday, August 17, 2009

मेरे बहाने पत्रकारिता की मर्यादा पर आत्ममंथन हो- -जरनैल सिंह-

भड़ास फॉर मीडिया से साभार....
सर्वाधिकार भड़ास फॉर मीडिया

मैंने पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन किया था। इसकी मुझे सजा भी मिल गई। मुझे सजा से कोई ऐतराज नहीं है। सजा कितनी होनी चाहिए थी, ये जरूर बहस का विषय हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि जो अखबार रिपोर्टर को खुद दलाली करने पर मजबूर करते हैं, पैसा लेकर उम्मीदवारों को चुनाव हराते और जिताते हैं, ईमानदारी से पत्रकारिता करने की सजा देते हैं, नेताओं के दबाव में निर्दोष पत्रकार की नौकरी लेते हैं या दंडित करते हैं, खबरों को सही परिप्रेक्ष्य से हटा कर जानबूझ कर पक्षपाती एंगल देते हैं, पैसे लेकर माफियाओं और अपराधियों को दूध का धुला साबित करते हैं, क्या वह पत्रकारिता की मर्यादा का उल्लंघन करने में मुझसे बड़े गुनाहगार नहीं है? मेरा तरीका गलत था लेकिन मुद्दा हजारों-लाखों मजबूर दंगा पीड़ितों की आह को आवाज देना था। मैंने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई, वह भी 25 साल के इंतजार के बाद। जो अखबार व पत्रकार सिर्फ स्वार्थ के आधार पर पत्रकारिता की मर्यादा को जूतों तले रौद रहे हैं, क्या वह पत्रकारिता की मर्यादा की बात करने के काबिल हैं?

सोचना होगा कि आज कलम की ताकत कम क्यों होती जा रही है? मीडिया की विश्वसनीयता कटघरे में क्यों है? आखिर वह काम जो कलम को करना चाहिए था, वह जूते से कैसे संभव हुआ? अन्याय के खिलाफ विरोध के अप्रत्याशित तरीके अपनाने को लोग क्यों मजबूर हो रहे हैं? आखिर कलम व अखबार उनके उत्पीड़न को स्वर क्यों नही दे पा रहा है? अगर कुछ लिख भी रहे हैं तो उसका प्रभाव क्यों कम हो गया है? ये घटनाएं कलम की घटती विश्वसनीयता, जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति का ही परिणाम तो नहीं है?

Wednesday, August 12, 2009

भूपेन याद हैं ?

भूपेन याद हैं आप सबको ? नही? जाहिर है कि ब्लॉग जगत मे पहली बार समानता का परचम लहराने वाले भूपेन और समानता की वकालत का नतीजा भुगत चुके भूपेन अपनी ब्लॉग जगत पर कम हलचल की वजह से शायद ब्लॉग जगत मे भुला दिए गए हों, लेकिन मैं नही भूल सकता। और जिसे करने मेमुझे अभी बार बार सोचना पड़ता है, उन्होंने कर के दिखा दिया। उनके बारे मे अक्सर लोग फोन पर या किसी और माध्यम पर मुझसे सवाल किया करते हैं। जैसे कि भूपेन आजकल कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं। दरअसल पिछले कई महीनों से वह काफी परशान चल रहे थे- नौकरी और जिन्गदी, दोनों से। उनके बारे मे याद है मुझे कि कई लोगों ने मुझसे कहा कि भूपेन कुछ अन्तर्मुखी व्यक्तित्व के तो नही लगते। मैंने कहा नही, मुझे तो वो ऐसे नही लगते। सिनेमा हो या कहानी, राजनीति हो या थियेटर - किसी भी विषय पर उनसे बात कर लीजिये, कई सारी नई जानकारियां मिलेंगी। ज्यादातर लोगों को पता होगा कि भूपेन इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार हैं। लेकिन अब ऐसा नही है। मीडिया जगत की हंस नुमा कहानियों के किसी नायक की तरह उन्होंने इस दुनिया को न अलविदा करने का पूरा मन बना लिया बल्कि उन्होंने पत्रकारिता जगत को अलविदा कर दिया है.... पिछले कुछ सालों मे उनसे मेरी वाकफियत के दौरान मैंने जितना उन्हें जाना है, उसके मुताबिक ये काम तो उन्हें कई सालों पहले कर लेना चाहिए था, लेकिन अब जाकर किया है, तो अब भी अच्छा ही है। आज तक हमारी जब भी मुलाकात हुई, उन्होंने मुझसे हमेशा ही कहा कि काश उन्हें कही पढ़ाने को मिल जाए। पढाना भूपेन का सपना था और अब हकीकत मे बदल रहा है। इस सपने को पूरा करने मे मेरा मानना है कि उनके दफ्तर , उनके कामकाज का भी बड़ा हाथ रहा है। पिछले कुछ दिनों से वह मुझसे लगातार कह रहे थे कि अब दफ्तर मे काम करना आसान नही रह गया है। पिछले महीने मिले तो बुरी तरह मानसिक रूप से थके हुए। (भूपेन के मानसिक रूप से थके होने पर भी हमने कितने मजे किए, वो किस्सा बाद मे ) तब भी उन्होंने यही इच्छा जाहिर की थी। भूपेन अपने सपने को आंशिक रूप से साकार करने मे कामयाब हो गए हैं, फिलहाल आई ई एम् सी मे पढ़ा रहे हैं। रोज सुबह ऑन लाइन उनसे जब बात होती है तो अब भूपेन यह नही कहते कि काश पढाने को मिल जाता.....भूपेन कहते हैं कि बच्चे इन्तजार कर रहे होंगे... वैसे भूपेन जैसे पत्रकार का जाना पत्रकारिता जगत के लिए काफ़ी नुकसानदायक है। भूपेन को जितना मैं जानता हूँ, उनके जैसे पत्रकार पत्रकारों मे उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ये पत्रकारिता जगत की खामी रही की ये जगत उन्हें संभल नही पाया, खो दिया।

Saturday, August 8, 2009

आख़िर क्यों आई खरीफ की कम उपज ?

प्रधानमन्त्री के नाम एक पत्र।

प्रिय प्रधानमन्त्री जी।
अभी कल की ही तो बात है जब आपने ये बयान दिया कि खरीफ की कम उपज आने पर आने वाले समय मे अनाज की कीमतों मे बढोत्तरी हो सकती है। लेकिन ये क्यों नही बताया कि आख़िर क्या बात रही कि देश मे खरीफ की कम उपज आई। पिछले साल भी तो इस देश मे आपकी ही सरकार थी और उसके भी पिछले साल आपकी ही सरकार थी और आप ही प्रधानमन्त्री थे। बरसात की बात करें तो पिछले दो सालों से तो बरसात बस यूँ ही आ रही ही और गुजर जा रही है। क्या इसके लिए आपने कुछ इंतजामात किए? आपको तो सिर्फ़ कह भर देना है की कीमतों मे बढोत्तरी होनी ही है। लेकिन क्या आप जानते हैं की इससे सबसे पहले आपका वही किसान मारा जाएगा जो खेतों मे फसलें उगाता है। जाहिर है कि आपने कुछ भी नही किया। रक्षा बजट हो या विदेशी कंपनियों को बढ़ावा देना उन्हें सब्सिडी देना, आप उन मामलो को तो सबसे पहले आगे बढाते हैं, लेकिन देश के ३२ करोड़ लोगो को एक साथ क्यों भूल जाते है । कृषि बजट आपका कितना रहा, ये शर्मनाक बात तो आप बताना ही नही चाहेंगे। आप किसानो के कितने हित चिन्तक है, ये बात तो उस महाराष्ट्र से पता चल गई जहाँ आप पैसे बांटने गए थे और आज तक किसी को भी पैसे नही मिले। मुझे तो लगता है कि ये नियत मे खोट है। नही तो आदमी अगर कोई काम करना चाहे और ना कर पाये, ऐसा तो हो ही नही सकता। आख़िर आपने प्रधानमंत्री बनना चाहा और बन भी गए। उस नियत मे कोई खोट नही था तो फ़िर हमारे अन्न दाताओं के लिए नियत मे खोट क्यों? क्यों नही खरीफ का इंतजाम पिछले साल ही किया गया। पश्चिम के कुछ प्रदेशों को छोड़ दें तो भारत के ज्यादातर प्रदेशों मे किसान किस अनाज पर निर्भर रहते हैं ? प्रधानमन्त्री जी, पता नही आवाजें आपके कान मे जाती हैं या नही, मुझे उम्मीद है कि नही जाती होंगी। नही तो आपकी पार्टी के युवराज के पास सिर्फ़ बुंदेलखंड का मुद्दा न होता। पिछले ६ सालों से तो पूरा देश और पूरे देश के किसान ख़ुद मे ही बुंदेलखंड बन गए हैं। कभी कोई फ़िक्र की आपने? या शर्म अल शेक आपके लिए ज्यादा जरूरी है? अमेरिका का पिछलग्गू बनना आपके लिए ज्यादा जरूरी है? प्रधान मंत्री जी, इस पत्र मे लिखी गई बातों के लिए आप बुरा ना माने, क्यों कि ये एक आम आदमी की आवाज है, वह आदमी, जिसके बच्चों के स्कूल वालों ने मनमानी फीस बढ़ा दी है लेकिन आप कुछ नही कर रहे, जिसे दाल के लिए दुगनी कीमत चुकानी पड़ रही है लेकिन उसकी तनख्वाह नही बढ़ी है।

Thursday, August 6, 2009

कार्ड खरोचन मशीन

दफ्तर से वापस लौटकर कही बाहर जाने का मन नही होता है। और अगर थोड़ा सा भी पसर लिए, तब तो अल्लाह ही मालिक है। फ़िर तो चाहे कोई भी आवाज देता रहे, मैं और मेरी तन्हाई पीछा छोड़ने का नाम ही नही लेते। और अगर ऐसे मे अगर मजबूरन कुछ लाने बाहर निकलना हो और जेब मे पैसे न हों तो.... पहले अम्मा याद आती थीं, अब टी एम् या वो कार्ड खरोचने वाली मशीन याद आती है। कुछ ख्याली पुलाव भी मन मे घपर झोल करने लगे। सोचा की काश ऐसा होता की जो समान मांगना है, उसका फोन पर ही ऑर्डर हो जाता और फोन करने पर जो डिलीवरी बॉय आता , वो वही कार्ड खरोचने वाली मशीन भी साथ लाता। अब जब कैश लेस बनने का संकल्प किया ही है तो ससुर सब्जी और बंधानी हींग भी घर पे ही कैश लेस मिले। लेकिन फ़िर सोचे साला ऐसा अगर हो गया तो ससुर पूरे देस की हालत ही पतली हो जायेगी। ब्लैक मनी कहा जायेगी?.......
ब्लैक मनी कहा गई, आगे जानने के लिए चट्काइये..... डेली डायरी

Tuesday, August 4, 2009

माफ़ी के साथ....

माफ़ी के साथ मैं ये बताना चाहता हूँ की १२ पत्थर के नाम से जो ब्लॉग शुरू हुआ था, उसमे मेरे नाम की जगह किसी दूसरे शख्स का नाम हैएक ऐसा शख्स, जिसे पढने लिखने से कोई मतलब नही, और ये बात मैंने पिछले साल मे अच्छी तरह से जान ली हैइसलिए, अब वो ब्लॉग मेरा है, और उसमे लिखी सारी चीजें मेरी हैं। ye सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मैंने ही वो सारी चीजें लिखी थी.... इसके साथ ही उस शख्स से भी माफ़ी, की मैं अब मेरा ही बनाया और लिखा हुआ ब्लॉग उससे वापस ले रहा हूँ....पेश है उस ब्लॉग की पहली पोस्ट जो मुझे काफ़ी पसंद है....

एक मुहल्ले का मिलन स्थल , सभी उमरों की पसंदीदा जगह , चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा और बीच मे एक ख़ूब बड़ा सा मैदान । जिसके अगल बगल होमिओपैथी, एलोपैथी ,तरह तरह के नर्सिंग होम और डॉक्टरी के ढेर सारे खंभे पाए जाते हैं और उनसे निकलने वाला करंट सारे शहर मे मुसलसल दौड़ता रहता है ॥दौड़ता रहता है ..हमने सोचा कि क्यों ना इस दौड़ को एक मुकाम दिया जाए जो सीधे उस जगह से शुरू हो जहाँ पर हमने दौड़ना सीखा था . बस यही सोच कर हमने उस मुकाम को नाम दिया बारह पत्थर . यही वो जगह है जहा मुहल्ले का हर बड़ा आदमी जो अब काफ़ी बड़ा हो गया है , कभी बगलों से फटी शर्ट पहन के फ़ुटबॉल खेलने मे कोई शर्म महसूस नही करता था लेकिन पता नही क्यों अब करता है .. ख़ैर ये ब्लॉग नामा इस बात को कुरेदने की क़तई कोशिश नही कर रहा है कि अब वो लोग वहा नज़र क्यों नही आते .. ये तो बस एक याद को संभालने के लिए है जिसे हम सब भूल नही सकते , क्योंकि नगर पालिका की चहारदीवारी से घिरा वो इमली का पेड़ अभी भी है. लेकिन वहाँ जो नही है , वो है वहाँ का मैदान , जिस पर अब मिलेट्री वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और पूरी तरह से उस मोहल्ले के ही नही बल्कि आस पास के तीन चार ज़िलों के लोग अब उस मैदान से मरहूँ हो गये हैं और इसकी छाया अक्सर पुराने लोगों के चेहरे पर देखी जा सकती है , अब मुहल्ले के बच्चे अपनी अपनी छतों पे खेलते हैं या शायद फिर आर्यकन्या वाले मैदान मे , डंपू तो अपने मैदान मे किसी को खेलने ही नही देता बहुत बदमाश था और अभी भी है .. पता नही उसकी लड़की "शांति" के क्या हाल हैं . जबसे मैदान बंद हुआ तबसे सब लोग मुहल्ले मे ही सिमट गाये हैं . सेंट्रल स्कूल भी कहीं और चला गया है , वही स्कूल जहाँ से गली मे पहली बार गमले चुरा कर लाए गये थे और गली मे एक नये फ़ैशन की शुरुवात हुई थी ... ये बारह पत्थर कभी छूट सकता है क्या ?


इस मैदान मे मैंने अपना पूरा बचपन गुजरा है....बल्कि जवानी मे दाढी का पहला बाल भी यहीं से निकलना याद आता है....इस १२ पत्थर का कोई मोल है क्या ?

डेली डायरी - एक नया ब्लॉग

डेली डायरी के नाम से आज से एक नया ब्लॉग शुरू कर रहा हूँ। ये ब्लॉग पत्रकारिता के उन रहस्यों को साफ़-साफ़ सामने लाने की कोशिश करेगा, जो रोज की दिनचर्या मे किसी एक पत्रकार के सामने आते हैं। मुश्किलें कम होंगी, इसकी आशा तो न के बराबर है, लेकिन कई नई और रोचक जानकारियाँ सामने आयेंगी इस बात की उम्मीद पूरी है। इसे ब्लॉग सूची मे दाल दिया है और यहाँ लिंक भी दे रहा हूँ। टाइम कम होने की वजह से चिठ्ठाजगत और ब्लोग्वानी से ये कुछ समय बाद ही जुड़ पायेगा। ये रहा लिंक--- डेली डायरी