Tuesday, November 3, 2015

उजाले का खोमचा

light
सोचता हूं एक उजाले का खोमचा लगा लूं। हर तरह का उजाला बेचूं। मीठा उजाला, कड़वा, कसैला, खट्टा, नमकीन, चरपरा, लाल, नीला, पीला, हरा.. मने हर तरह का उजाला। जि‍से जब जहां जहां चाहि‍ए, दो बूंद उजाला ऐन वहीं टपका दूं या मन करे तो दो लीटर भर दूं। उजाले की कीमत रखूं बस एक बात। ऐसी जो कोई कर दे तो दन्‍न से उजाला मेरे खोमचे से बाहर आ जाए। सन्‍न से वो अपना झोला बढ़ाए और टन्‍न से उसके झोले में एक खट्टे चरपरे नीले उजाले का सिक्‍का गि‍रा दूं।

बड़ा ही अंधेरा वक्‍त है जब उदय उजाले को तरसता है। जब पानी अक्‍टूबर में बरसता है। जब सारे ढोर जिंदा रहने को जाते हैं पासगांव। जब जिंदा लोग ढोर डांगरों की तरह मारे जाते हैं। जब जनेऊ ठठाकर हंसता है। जब मन अटपटाकर अटकता है। जब कहना कि‍सी सुनने में नहीं आता है। जब सुनना सि‍रे से ही सरक जाता है।
उजाला बि‍के न बि‍के, जरूरत तो रहेगी ही। रास्‍ता दि‍खे न दि‍खे, पगडंडी तो बनानी पड़ेगी। रंग बरसें ना बरसें, होली तो आएगी ही। और जब सबकुछ आएगा तो आएगा धतूरे लटकाकर खोमचे की बाड़ बनाकर उजाला बेचने वाला मेरे सा एक मैला दर कुचैला आदमी। अपने लाल दांत लेकर अंधेरे के कंधे में काटने को कि‍टकि‍टाता।

कि‍टकि‍टाने का मतलब समझ आता है ना?

मौज करो एे नि‍क्‍करवालों, अभी मेरे मुंह में मसाला है...
तय करो तुम्‍हारी अंधेरी जगहों में उजाला भरूं या मसाला..

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