Saturday, January 16, 2016

मिलेगा तो देखेंगे - 17

an original photo of dreams by Lesley Roberts
जब मैं तुम्‍हें सपने में देख रहा होता हूं तो क्‍या तुम भी खुद को देख रही होती हो? लगती तो तुम खुद को वैसी ही होगी जैसा मैं तुम्‍हें देखता हूं या फि‍र तुम खुद को जैसा दि‍खाना चाहती हो, जब चाहती हो, वैसा लग लेती हो? उम्र के साथ आपाधापी करती हर कदम पटककर जमीन को तोड़ देने जैसा तुम्‍हारा दि‍खाना मैं देखता रहता हूं। तुम्‍हें भी और उस ज़मीन को भी जहां तुमने लात मारी थी। हर कदम को मैं उसी खुरपी से टहोकता हूं जि‍ससे खेत में आलू। क्‍या मजाल एक भी आलू को चोट लगे।

आलू को चोट लगती है तो वो छीलने पर भी नहीं जाती। चेहरों को चोट लगती है तो सि‍लवटाें में नुमायां होती है। सपनों को जो चोट लगती है, वो नींद के खालीपन में भरी रहती है। आलू की चोट तो काटकर अलग कर लेते हैं, सपनों की चोट अलग करने को बने चाकू को खोजते अक्‍सर मैं खाली नींद में वि‍चरता हूं। अक्‍सर मैं सपनों में सो जाता हूं। अक्‍सर वही होता है जैसा तुमने चाहा। अक्‍सर वही होता है, जि‍सका मै सपना ही नहीं देख पाया। रेत मेरे हाथों से फि‍सलती जाती है। झुर्रियां रोज एक नया सपना देखने का नि‍शान तो दर्ज कर लेती हैं लेकिन खालीपन में वि‍चरते अदेखे सपने मेरी तरह अबोले ही रह जाते हैं।

मैं चोट लि‍खता हूं, फि‍र कुरेद देता हूं। मैं नींद देखता हूं और सपने सो जाता हूं। मैं खुरचता हूं और खाली नि‍शान देखता रहता हूं। मैं चि‍ल्‍लाना रिकॉर्ड करता हूं और नीरवता सुनता रहता हूं। मैं खुरपी हाथ में लेता हूं और जमीन में गाड़ देता हूं। मैं शीशा बनाता हूं और नींदों में उड़ेल देता हूं। तलवों पर रेत जमाता हूं और फि‍र हाथ झाड़ लेता हूं। दि‍खाता हूं खुद को और अनदेखा रह जाता हूं। करता हूं प्रेम और नहा लेता हूं नफरत से। बैठता हूं आगे जाने को, आना भूल जाता हूं।

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