Monday, September 19, 2016

कल्पनाकृत मन का अमृत संसार

मैं और मेरी दिलासा के साथ मेरे बाहरी
जो बाहर रहने लगा, वो बाहरी हो गया। कितने बाहर रहने लगा, कितना बाहर रहने लगा, क्यूं बाहर रहने लगा, बाहर की क्यूं रहता रहेगा, इन सारे सवालों के जवाब की तो दूर की बात, कोई इन सवालों के बारे में भी नहीं सोचता। मैं फैजाबाद में नहीं रहता। मैं बाहरी हूं। मैं दिल्ली में रहता हूं। मैं बाहरी हूं। मैं न्यूयॉर्क में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहरी ही होउंगा, मैं फैजाबाद में भी रहने लगूंगा, तो भी बाहर से ही आया कहलाउंगा। मैं हर तरफ से बाहरी हो चुका हूं। मेरे जैसे कितने लोग बाहरी हो चुके हैं। हम बाहरी लोगों का कोई देश नहीं, कोई शहर नहीं, कोई मोहल्ला नहीं। हम कुछ भी करके मर जाएंगे तो भी कोई गली भी हमारी न होगी।

बाहरी हूं, हर बार फैजाबाद बाहर बाहर ही होकर आ जाता हूं। क्या नामीबिया में भी लोग मुझे बाहरी समझेंगे? हां, वहां के लोग भी मुझे बाहरी ही समझेंगे। वो कौन लोग हैं जो मुझे और मेरे जैसों को बाहरी समझते हैं? वो कौन सा अंदर है, जिसमें वो घुसकर लोगों को बाहरी बनाते रहते हैं? क्या वो कल्पनाकृत मन का वो अमृत संसार है जिसे मैं न बना पाया? क्या वो संबंधों का वो व्यापार है जिसे मैं न कर पाया? या फिर घर के अंदर होने वाले वो सारे व्यभिचार हैं, जिनके बारे में मुझे विचार तक न आया? मैं बाहरी हूं और इस हूं में शमशेर के वो सारे हूं अपनी लय के साथ उसी तरह से जुड़े हैं, जैसे मेरा बाहरी होना। शमशेर को किसने पढ़ा है? क्यूं पढ़ा है?


मेरे मोबाइल के सारे नंबर बाहरी हैं और उनमें एक भी नंबर मेरा नहीं है। मैं खुद अपने बाहर बाहर रहता हूं, अपने अंदर अभी मैं ठीक ठीक घुस नहीं पाया। अपने अंदर सबकुछ होते हुए भी सबकुछ बाहर ही होता है। तापमान से हमारा संपर्क बाहरी है। बरसात की बूंदें तो और भी बाहरी हैं। सूरज तो हमारा है ही नहीं। दुनिया कैसे बढ़ती अगर बाहरी न होते?

मैं जानता हूं कि मैं खुद को दिलासा दे रहा हूं। लेकिन यही एक चीज है जो मैं खुद को देता रह सकता हूं। मेरी दिलासाएं मुझसे बाहर नहीं, वो बाहरी नहीं।

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