Monday, November 21, 2016

लोग मर रहे थे, पीएम भाषण कर रहे थे

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता है- 

यदि तुम्हारे घर के/ 
एक कमरे में आग लगी हो/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में सो सकते हो? 
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रहीं हों/ 
तो क्या तुम/ 
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

कल आगरा में रैली करके प्रधानमंत्री ने इसका जवाब दे दिया। उन्होंने देश को बता दिया कि ऐसे मौके पर सोना और प्रार्थना ही नहीं बल्कि अट्टहास किया जा सकता है। वैसे कहने को तो हमारे प्रधानमंत्री को कार के नीचे पिल्ले के आने से भी दर्द होता है, लेकिन जब गाड़ी के नीचे 130 लोग आ जाते हैं तो साहेब की संवेदना घास चरने चली जाती है। देश का शीर्ष नेतृत्व अगर इतना संवेदनहीन है तो इसके लिए उसको नहीं बल्कि हमें अपने बारे में सोचना चाहिए। आख़िरकार हम ऐसे नेतृत्व को कैसे चुन सकते हैं?

दरअसल मोदी जी इन्हीं तरह की स्थितियों के लिए देश को तैयार कर रहे हैं। उन्हें पता है कि जिस तरह की नीतियों को वो आगे बढ़ा रहे हैं उसके नतीजे बेहद खतरनाक होने जा रहे हैं। इसके चलते  देश और समाज में अराजकता फ़ैल सकती है। लिहाजा उसकी तैयारी बहुत जरूरी हो जाती है। आगरा रैली उसका पूर्वाभ्यास है। इस रैली के जरिये पीएम ने न केवल अपनी संवेदनहीनता दिखाई है बल्कि आगरा समेत देश की जनता को भी संवेदनहीन होने के लिए मजबूर किया है। आगरा के लोग अगर कुछ सौ किमी की दूरी पर स्थित कानपुर के लोगों के दर्द को नहीं महसूस कर सकेंगे, तो कल को आप के दर्द को कौन महसूस करेगा? इस हादसे में तो वैसे भी कितने लोग आगरा के आसपास के ही होंगे, लेकिन यह प्रधानमंत्री का दुस्साहस ही कहा जाएगा कि जब आगरा के आसपास के घरों में मौत का मातम पसरा है तो वो मंच से राजनीतिक भाषण दे रहे थे।

ऊपर से घाव पर नमक छिड़कने का काम रेल मंत्री प्रभु ने किया। वैसे तो वो मदद करने गए थे, लेकिन 500 और 1000 के पुराने नोटों के जरिये आफत दे आये। कोई उनसे पूछे कि यह नोट जब अवैध हो गई है तो सरकार कैसे उसको किसी नागरिक को दे सकती है और उनके चलने का हाल तो पूरा देश देख रहा है। ऐसे में घायलों को जहां तत्काल जरूरत है उनके साथ रेल मंत्री का यह रवैया किसी क्रूर मजाक से कम नहीं है। दरअसल सरकार भी जनता को कीड़े मकोड़ों की तरह ही देखती है और जानती है कि उसे किसी भी तरीके से हांका जा सकता है। हमारी सहने की क्षमता का तो अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।

इस मामले से एक दूसरा सवाल भी खड़ा हो जाता है। आखिर जिस जनता के नाम पर ये पूरा निजाम खड़ा हुआ है, उसमें उसकी कितनी कीमत है? कहने को तो हमारे देश में हाथी मार्का लोकतंत्र है, लेकिन उसमें जनता की हैसियत चींटी के बराबर भी नहीं है। यही हाल किसी कुदरती आपदा में सैकड़ों-हजारों लोगों के मरने के बाद भी होता है। शोक में अवकाश और झंडा झुकाने की बात तो दूर संसद में दो मिनट का मौन भी नहीं रखा जाता है। वहीं अगर कोई नेता मर जाए तो सात-सात दिन का शोक और उतने ही दिन झंडा झुका दिया जाता है। फिर तो सरकार को जरूर इस बात को बताना चाहिए कि आखिर कितनी लाशें गिनने के बाद वो शोक मनाएगी? अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो दो सेकेंड के लिये ही सही हमें जरूर अपने और अपनी हैसियत के बारे में विचार करना चाहिए।
लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। 

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