Sunday, December 25, 2016

नए साल की प्रार्थनाएं

जो मुझसे नफरत करते हैं, वह और भी सुंदर होते जाएं।
जो मुझे नापसंद करते हैं, उनका काम कम खाने से भी चल जाए।
जो मुझे शूली पे टांगना चाहते हैं, उन्‍हें रोजगार मि‍ले।
जो मुझे दुख देते हैं, सुख उनकी कदमबोसी करे।
जि‍नकी आंखों में मुझे देख आग उतरती है, गर्मी का मौसम उन्‍हें कम सताए।
जो मुझे नहीं जानते, उन्‍हें नया जानवर पालने को मि‍ले।
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प्रेमि‍काएं धोखा देती रहें। मैं धोखे खाता रहूं।
पड़ोसी आग लगाते रहें। मैं बेपरवाह जलता रहूं।
दर्द बना रहे। कि‍सी को पता भी न चले।
बांध टूट पड़ें। पानी में मैं तैरता हुआ बहूं।
बाप से बेटा दूर रहे। पहचान और धुंधली होती जाए।
यादें नाचती रहें। उनके हाथों में पैने हथि‍यार हों।
धागे उलझे रहें। सुई खो जाए।
घर की तरह मैं बाहर भी फटे कपड़े पहनूं।
अदालतें चलें तो सिर्फ मेरा चलना बंद करने को।
कचेहरी खुले तो सिर्फ मुझे लगाने को।
कोई दि‍खे तो सिर्फ मुझे दि‍खाने को।
सबके घर के बाहर नए चबूतरे बनें, गर्मी की शाम उनपर पानी छि‍ड़का जाए।
नए साल में प्रार्थनाएं बंद हों।

DANGAL REVIEW: न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही!

अमूमन कहानियां तीन तरह से कही जाती हैं। पहला तरीका, सत्य घटनाओं का अपनी दृष्टि के मद्देनजर सीधा सच्चा बयान। दूसरा, आद्यांत कपोल कल्पना। तीसरा, सत्य घटनाओं से कुछ हिस्से उठाकर उसे समाजपयोग के लिए मन-माफिक मोड़ देना। यह तीसरा तरीका ही ज्यादातर किस्सागो अपनाते हैं। इसे समाजपयोग के लिए बनाने का काम दरअसल लेखक की सोच, उसकी तैयारी और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है। दंगल फिल्म तीसरे तरीके से कही गई कथा है। राष्ट्रकुल खेलों में गीता फोगाट को मिला गोल्ड इस फिल्म की प्रस्थान बिंदु है। महावीर फोगाट के संघर्षों को समेट पाने में नितांत असफल यह फिल्म देशभक्ति के खोल में लिपट जाती है।

सौरभ दुग्गल ने महावीर फोगाट की जीवनी लिखी है, जिससे यह फिल्म उठाई गई है, उस जीवनी में महावीर के आतंरिक, सामाजिक और घरेलू संघर्षों का जितना बढ़िया और सटीक वर्णन है, यह फिल्म उस पूरे संघर्ष का शतांश भी नहीं पकड़ पाती। उस असफलता के कारण फिल्म देशभक्ति का आसान रास्ता पकड़ लेती है और वह पूरा संघर्ष एक मामूली कथा में बदल दिया गया है, जिसे फिल्म के शुरू में ही बता दिया जाता है कि - इस फिल्म में गीता और महावीर के जीवन को 'फिक्सनलाईज' किया गया है। यह वो 'फिक्शन' वाला हिस्सा ही है जो पुरातनपंथी है।

दंगल से पहले 'तारे जमीन पर' का जिक्र करते हैं। उस फिल्म में भी एक पिता है जिसके अपने बच्चों से अरमान असीम हैं, बड़ा बेटा सफल होता दीखता है लेकिन छोटा अपने अलग मिजाज का है, वह पिता के अरमानों पर पानी फेरते रहता है। फिर पिता और स्कूल की क्रूरताएं हैं। वहाँ, आमिर खान के रूप में एक शिक्षक आता है। वह छोटे बेटे को नई राह दिखाता है। यहाँ बात पिता बनाम शिक्षक नहीं है। ऐसा होता भी नहीं। किसी के भी जीवन में शिक्षक का एक किरदार होता है, जिसकी एक सीमा होती है, उसी तरह पिता का भी किरदार अपनी सीमाओं को लिए रहता है। मुख्य बात यह होती है कि जीवन में आपकी दिलचस्पी कौन जगा पाता है। वह दिलचस्पी ही बहुधा जीवन के रास्ते तय करती है, मिलने वाले लोग तय करती है। तारे जमीन पर फिल्म वह दिलचस्पी चित्रकारी के रूप में शिक्षक जगाता है और दंगल, कुश्ती के रूप में, यह काम गीता और बबीता की वह सहेली करती है, जिसकी शादी में वो दोनों गयी होती हैं। वरना उसके पहले तो पिता की लाख कोशिशों के बावजूद दोनों बहनें कुछ भी सीखने को राजी नहीं।

असल जीवन से उलट फिल्म में पिता का सपना कुश्ती को लेकर कम, देश के लिए मेडल लाने को लेकर अधिक है। एक भौतिक सफलता: जैसा कि अमूमन भारतीय पिताओं का स्वप्न होता है। यही वो पहलू है जहाँ महावीर फोगाट के जीवन संघर्ष को हल्का कर दिया गया है। कुश्ती के लिए, एक कला के लिए, समर्पित इंसान को, व्यवसायिक फायदे के लिए देशभक्ति के चासनी में डुबो दिया गया है। और देशभक्ति की चाशनी जब सबको नजरबन्द कर लेती है तो शुरू होता है: एजेंडा सेटिंग। न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही, वाले फॉर्मूले पर फिल्म बढ़ निकलती है। यह परिवार व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है कि पिता ने जो कह दिया वो सही है। यह फिल्म उन सभी पिताओं को तर्क देती है कि पिता ही बच्चों का भविष्य बनायेगा और इसके लिए हर तरह का शासन सही माना जाएगा।

इस फिल्म में सबसे पहले तो विराट जीवन को 'महान भारतीय परिवार' वाली फॉर्मूला कहानी में बदल दिया गया है और फिर मनमाफिक खलनायक भी चुन लिए गए हैं। जैसे, कोच। गिरीश कुलकर्णी ने उस पतित आदमी के किरदार को जबर्दस्त निभाया है लेकिन उस किरदार के लिखावट/बनावट पर गौर करें तो पाएंगे कि आमिर यानी पिता के चरित्र को मजबूत बनाये रखने ( यानी परिवार ही सही है) के लिए कोच के किरदार को लगातार गलत दर गलत दिखाया गया है। अंततः वह किसी भुनगे की माफिक दीखता है। अच्छे कोच की तो जाने दीजिए, खराब से खराब कोच भी इतने जुगाड़-जतन से अपना पोजिशन बरकरार रखता है कि एक खिलाड़ी के पिता से उसे कोई खतरा हो ही नहीं सकता।

कहानी यों बनाई गयी है कि जहाँ जहाँ गीता ने अपने पिता की बात मानी है, वहाँ वहाँ वो सफल हुई है। और पिता भी अपनी सारी बात देशभक्ति के रसे में भिंगो कर कहता है। देशभक्ति के नाम पर इस फिल्म में अनुशासन को हंसने वाली चीज बना दी गयी है। कुश्ती ही नहीं दुनिया के सारे खेल पर्याप्त लगन और अनुशासन की मांग रखते हैं। फिल्म का इरादा जो भी रहा हो, सन्देश यही देती है फिल्म कि पिता नाम की सत्ता ही आपके अच्छे बुरे का ख्याल रख सकती है।

फिल्म का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है जो पिता और बेटी का द्वन्द दिखाता है, नया बनाम पुराना का आदिम द्वन्द। अंततः यह द्वन्द पिता और पुत्री को आमने सामने कर देता है। अखाड़े में। पिता को यह अखर जाता है कि उसके ही अखाड़े में उसकी ही बेटी नए सीखे दाँव आजमा रही है। वो खुद बेटी को कुश्ती लड़ने की चुनौती देता है, और अभी बेटी तैयार भी नहीं होती है कि उसे उठाकर पिता पटक देता है। बेटी, जो कि खिलाड़ी पहले है और बेटी बाद में, कहती है, पापा मैं तैयार नहीं थी। तब पिता फिर ललकारता है। बेटी तैयारी से लड़ती है और पिता को चित्त कर देती है। यह फिल्म का सर्वाधिक प्रशंसनीय हिस्सा है।

पिता भी खिलाड़ी रहा है, उसका मान सम्मान के लिए लड़ना समझ में आता है। कोई भी लड़ जाएगा। लेकिन ठीक इस दृश्य के बाद फिल्म को रसातल में ले जाने की कवायद लिख दी जाती है। जीतने वाली बेटी को शर्मिन्दा कराया जाता है, पिता की उम्र हो गयी है, वो बड़े हैं, उन्होंने इतना कुछ किया है..मार तमाम..आशय यह कि गीता को अपने पिता को हराना नहीं चाहिए था।

आमने सामने के जोर में हारने के बाद पिता फिर से भारतीय पिता बन जाते हैं। रखवाला, सबसे बड़े ज्ञानी, स्ट्रैटजिस्ट...। कहानी में यह भी लिख दिया गया है कि महावीर यानी आमिर न मौजूद हों तो बेटी एक भी दाव सही लगा ही नहीं सकती। और हर बात में वही तर्क: देश के लिए मैडल लाना है। सोल्जर बोल दिया, आर्गुमेंट ख़त्म। क्योंकि तर्क खत्म हो गए इसलिए कोई नहीं जानना चाहता कि महावीर फोगाट का संघर्ष देश के लिए मैडल लाने से बहुत ऊपर का संघर्ष था, वरना जिस खेल में जिस वर्ष गीता को स्वर्ण पदक मिला, उसी वर्ष अलका तोमर को 59 किलो वर्ग और अनीता श्योराण को 67 किलो वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था।

आशय यह कि अगर इस फिल्म को गीता फोगाट और महावीर फोगाट के नाम पर न बेंचा गया होता और हर दूसरा डायलॉग देश के लिए मैडल लाने से सम्बंधित न होता तो यह फिल्म अपने सच्चे रूप में दिखती। लेकिन, ऊपर कहे गए दोनों तथ्यों के जरिए नजरबंदी कर दी गयी है और फिर,पूरी फिल्म एक आदर्श और देवतुल्य पिता पर लिखा निबंध हो कर रह गयी है। भारत के नए पिताओं के लिए यह डूबते तिनके का सहारा बन कर आई है जिसके मार्फ़त वो अपने बच्चों पर धौंस दोगुनी कर सकें। जो पापा बोले वही सही। जो परिवार बोले वही सही। वरना, सोल्जर बोलकर बहस ख़त्म कर दी जायेगी और निर्णय लाद दिए जाएंगे।
लेखक चंदन पाण्डेय वरिष्ठ विश्लेषक हैं। 

Wednesday, December 21, 2016

नतमस्तक मोदक की नाजायज औलादें- 48

प्रश्न: लोग लाइन में खड़े हैं।
उत्तर: देश को आगे बढ़ाने को खड़े हैं
प्रश्न:लाइन में लगकर देश आगे बढ़ता है?
उत्तर: और कैसे बढ़ता है?
प्रश्न: आप बताइए
उत्तर: नहीं, पहले तुम बताओ
प्रश्न: अरे सवाल मेरा है
उत्तर: लाइन में लगे हो?
प्रश्न: हां
उत्तर: आगे बढ़े हो?
प्रश्न: हां
उत्तर: तो भैंचो, जैसे तुम बढ़े, वैसे ही देश भी बढ़ता है
प्रश्न: आगे बढ़कर कहां जाएगा?
उत्तर: मंगल पे जाएगा बेटी-- तुमसे मतलब?
प्रश्न: मुझे भी तो वहीं जाना होगा?
उत्तर: तुमको तो पाकिस्तान भेजेंगे।
प्रश्न: वेनेजुएला में नोटबंदी वापस ले ली।
उत्तर: सही है, तुम भी वहीं चले जाओ।
प्रश्न: मेरी वजह से नहीं ली।
उत्तर: सब मोदी जी का प्रताप है।
प्रश्न: रोज नियम बदल रहे हैं।
उत्तर: तुम रोज पाजामा बदलते हो?
प्रश्न: नियम पाजामा होते हैं?
उत्तर: नियम बदलने के लिए ही होते हैं।
प्रश्न: पहले तो आप तोड़ते थे?
उत्तर: हां तो अब बनाते हैं।
प्रश्न: फिर नियम बदल दिया
उत्तर: फिर से बदल देंगे बे।
प्रश्न: लोग मर रहे हैं।
उत्तर: पहले क्या मरके जिंदा हो रहे थे?
प्रश्न: लाइन में मर रहे हैं।
उत्तर: राशन की लाइन में क्यूं नहीं मर रहे?
प्रश्न: क्या वहां भी मरें?
उत्तर: मंदिर की लाइन में क्यूं नहीं मर रहे?
प्रश्न: वहां भी मरें?
उत्तर: लोग साजिशन मर रहे हैं।
प्रश्न: क्या साजिश है?
उत्तर: लोग मरकर सरकार को बदनाम कर रहे हैं।
प्रश्न: कैसे?
उत्तर: लोग पैसा लेके मर रहे हैं।
प्रश्न: अरे लोग पैसा लेने को ही लाइन में खड़े हैं।
उत्तर: लोग पैसा लेके लाइन में लग रहे हैं।
प्रश्न: वो दूसरी बात है।
उत्तर: कैसे दूसरी बात है बे?
प्रश्न: गांव में पैसा नहीं है।
उत्तर: अच्छी बात है।
प्रश्न: ये अच्छी बात है?
उत्तर: और क्या, पैसा जहां होगा, रार पैदा करेगा।
प्रश्न: रोज के खर्चे के लिए पैसा नहीं है।
उत्तर: गांव में रहने वाले को कौन खर्च?
प्रश्न: खेती में पैसा लगता है।
उत्तर: कौन खेत में पैसा उगा देखे हरामी?
प्रश्न: आप मंगल ग्रह से आए हैं?
उत्तर: नहीं, लेकिन जाने वाले हैं।
प्रश्न: वो कैसे?
उत्तर: देखना, मोदी जी ले जाएंगे
प्रश्न: वहां क्या करेंगे?
उत्तर: हिंदू राष्ट्र बनाएंगे। 

Friday, December 9, 2016

फिल्म 'बिग नथिंग' और सभ्यता का स्खलन

एक छोटी सी निर्बोध बच्ची डालरों के अंबार से एक नोट निकालती है और उसपर, ख़ाली जग़ह पर चित्रकारी करती है! बेखबर है उन डॉलरों की अपार सत्ता और ताकत से! वो है तो उसके लिए खाना है, दूध है, किताब है और पेन है और वो खूबसूरत घर भी जिसमें वो बैठकर डॉलर पर चित्रकारी करती है। फिल्म "BIG NOTHING" का सबसे आखिरी सीन या यूं कहें कि फिल्म का क्लाइमेक्स है। फिल्म के इस अंत से पता चलता है कि निर्देशक, जीन बाप्टिस्ट एंड्रिया ने बच्ची एमिली के नैतिकवान शिक्षक-पिता चार्ली के गहरे अध:पतन की वास्तविक कहानी कह देता है और फिल्म में ईमानदार और बेइमान पुलिस के बीच की टकराहट और उनकी हत्या के साथ क्रूर पूंजीवाद का काला चेहरा दिख जाता है। 2006 में बनी यह फिल्म 2008 का दुनिया की "भयानक पूंजीवादी-आर्थिक-पतन" की भविष्यवाणी कर देती है। बहुत सारे देश आज भी उस आर्थिक मंडी से निक़ल नहीं पाए हैं। भारत का जनगण अपने परंपरागत पेशे-खेती किसानी के बाहुल्य की वजह से अपनी सारी दारुण दिक्कतों के बाद भी जीवित रहता है, लेकिन लोगों की परेशानियां बढ़ती गयी हैं और आज नोटबंदी की वजह से देश का जनगण सच में आर्थिक मंदी का शिकार हुआ है और लोग अपनी रोज़ी खो कर सड़कों पर आ गए हैं।

फिल्म BIG NOTHING के अंदर की विद्रूपता, हिंसा, बेइमानी वास्तविकता के धरातल पर उतरकर इस देश में बढ़ सकती है। फिल्म की एक टीन-एज्ड महिला किरदार ब्लैकमेल कर थैलियम का लिक्विड पिलाती है तो बंगलुरु का रेड्डी कार-ड्राइवर को आत्म-हत्या करने पर मज़बूर किया जाता है। मानवीय सभ्यता का स्खलन। भगत सिंह के शब्दों में, "दुनिया बड़ी तल्ख़ निर्मम है, जीने के लायक नहीं है। इसे जीने लायक बनाने के लिए लड़ना होगा। सरकार इस फिल्म की उस निर्बोध बच्ची की तरह है जिसे ये चिंता नहीं कि डॉलर क्या चीज़ है, लेकिन उसकी सारी ज़रुरत उस घर में मौजूद हो। लेकिन क्या हम अपनी सरकार से ऐसी अपेक्षा रख सकते हैं? सरकार फिल्म मेकर को ऐसी फिल्म बनाने पर रोक न लगाए, क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है? क्योंकि फिल्म तो हमारे समाज की हलचलों के दबाव को लेकर बनती है या कुछ फिल्म ऐसी बनती है जो उस समय तो नहीं घटती लेकिन दो-तीन साल में ऐसी घटना घट जाती है। फिल्म का कथानक समय के समाज से ही पैदा होता है। फिल्म "Big Nothing" बहुत बड़ी फिल्म तो नहीं या बहुत तकनीकी फिल्म भी न हो, लेकिन फिल्म के अंदर मानवीय कुकृत्यों की अविरल प्रवाह में भी एक अच्छी बात कह जाती है कि दुनिया उस निर्बोध बच्ची की तरह होनी चाहिए।

लेखक सत्यप्रकाश गुप्ता फिल्म निर्देशक हैं। 

Friday, December 2, 2016

सरकार बदहवास, समझदारी खल्लास

अब बदहवासी में आने की बारी सरकार की है। नोटबंदी के फैसले के समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि काला धन रखने वालों की रातों की नींद हराम हो गई है लेकिन सच बिल्कुल उल्टा निकला। सारे कालाधनधारी आराम से चैन की बांसुरी बजा रहे हैं। उनका पैसा सफेद होकर बैंक पहुंच रहा है और जनता परेशान है। दरअसल सरकार को उम्मीद थी कि इस पूरी कवायद में तकरीबन ढाई से तीन लाख करोड़ काला धन पकड़ लिया जाएगा। फिर उसे सरकार अपनी मर्जी के मुताबिक खर्च कर सकेगी। लेकिन सच यह है कि सारा काला धन सफेद होने के करीब है। राज्यसभा में वित्त राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया है कि 18 दिनों में 8.50 लाख करोड़ मूल्य की बड़ी नोटें जमा हो चुकी हैं। देश में बैंकों से लेकर बाजार तक 15 लाख 44 हजार मूल्य की कुल बड़ी नोटें हैं। इसमें बैंकों के रिजर्व बैंक में सीआरआर के तौर पर जमा तकरीबन 4 लाख करोड़ रुपये भी शामिल हैं। बाकी बैंकों में भी 70 हजार करोड़ रुपये पहले से मौजूद थे। ऐसे में अभी योजना को करीब एक महीने बचे हैं। जबकि अब बाजार से केवल 2.50 लाख करोड़ रुपये आने शेष हैं। रुपये जमा होने की जो गति है उसमें इन रुपयों के आने को लेकर कोई दुविधा नहीं है। यही वजह है कि सरकार ने आखिरी दौर में फिफ्टी-फिफ्टी की घोषणा कर दी। हालांकि उससे भी बहुत ज्यादा कुछ सरकार के खाते में आते नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में आनन-फानन में घोषणा प्रसाद ने एक नई घोषणा कर दी है। जो सोने से संबंधित है। इसके मुताबिक एक शादीशुदा महिला घर में 500 ग्राम सोना रख सकती है। जबकि गैर शादीशुदा 250 ग्राम और एक पुरुष 100 ग्राम सोना रख सकता है। ये कितना कारगर होगा उसके बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है। या फिर ये अमीरों के खिलाफ लड़ाई के लिए महज एक कागज की तलवार है। क्योंकि कालेधन का केवल 6-7 फीसदी हिस्सा ही करेंसी नोटों के तौर पर है। सरकार ने पूरे देश को उसके लिए कतार में खड़ा कर दिया है। अब जब मिलने की बारी आ रही है। तो मामला ठन-ठन गोपाल जैसा दिख रहा है।

इस बात से कई नतीजे निकाले जा सकते हैं। सरकार की मंशा कालाधन निकालना नहीं बल्कि उसके खिलाफ लड़ते हुए महज दिखना था। अगर सचमुच सरकार लड़ना चाह रही थी तो सबसे पहले उसे कालाधन के ज्ञात स्रोतों की तरफ ध्यान केंद्रित करना चाहिए था। जिसमें पनामाधारियों से लेकर बड़े घरानों की विदेशों में जमा रकम है। या फिर देश के उद्योगपतियों के ज्ञात स्रोत हैं। उदाहरण के लिए अडानी का 5400 करोड़ रुपया है जिसे उन्होंने मारीशस और मध्यपूर्व चैनेल के रास्ते बाहर भेजा। लेकिन सरकार न तो उनका नाम ले रही है और न ही उन जैसे दूसरों के खिलाफ कार्रवाई का कोई संकेत दे रही है। ऐसे में छोटे और काले धन के अज्ञात स्रोत पर केंद्रित करने का कोई तर्क नहीं बनता था। और यह बात तब और बेमानी हो जाती है जब खुद चौकीदार ही लूट की व्यवस्था का हिस्सा बन जाए। यह सरकार, बैंक और उसके मैनेजरों से लेकर इनकम टैक्स विभाग के कर्मचारियों तक के लिए सच है। और सबने मिलकर कालेधन को ठिकाने पर लगाने में पूरी मदद की है।

यह कुछ उसी तरह की कवायद है जिसे प्रधानमंत्री जी पिछले ढाई सालों में करते रहे हैं। तमाम भाग-दौड़ और व्यस्तता के बाद भी ढाई सालों का नतीजा सिफर है। और अब पूरी जनता को भी उन्होंने अपने ही पायदान पर लाकर खड़ा कर लिया है। जनता की सारी परेशानी के बाद भी देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। अलबत्ता 100 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ गयी। क्या इसकी सीधी जवाबदेही फैसला लेने वालों की नहीं बनती है? और उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? भले ही ये धाराएं गैरइरादत हत्या की दर्ज की जाएं। लेकिन उसका मामला तो बनता है। देश और दुनिया के इतिहास में भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं। जब शासकों को उनकी नीतियों के लिए दोषी ठहराया गया है और उसकी सजा उन्हें भुगतनी पड़ी है।

अगर देश में कानून और संविधान नाम की कोई चीज है तो सरकार के फैसले को जरूर उसकी कसौटी पर कसा जाना चाहिए। किसी भी नोट के मामले में करार रिजर्व बैंक और धारक के बीच होता है। जिसमें यह बात शामिल होती है कि रिजर्व बैंक धारक को उतने रुपये देगा और न देने की स्थिति में उसके बराबर के मूल्य की कोई दूसरी चीज या फिर सोना देगा। रिजर्व बैंक और नोट के धारक के बीच कोई तीसरा नहीं आता है। वह सरकार भी नहीं हो सकती है। ऐसे में रिजर्व बैंक अपने इस शपथ से कैसे पीछे हट सकता है। और अगर वह इस भूमिका में नहीं खड़ा हो पाया तो ये उसकी नाकामी है। और इस नाकामी की सजा बनती है। जिसे जरूर देश की सर्वोच्च अदालत और सबसे बड़ी संस्था संसद को संज्ञान लेना चाहिए।

लेखक महेंद्र मिश्र लंबे समय से जन अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।